भगवान कार्तिकेय का जन्म:- भगवान कार्तिकेय, जिन्हें मुरुगन, स्कंद, कुमारस्वामी और सुब्रह्मण्य भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। वे भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र हैं और भगवान गणेश के छोटे भाई हैं। दक्षिण भारत में विशेष रूप से तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भगवान कार्तिकेय की पूजा बड़े पैमाने पर की जाती है। उनका जन्म और उनकी कथा पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है।
भगवान कार्तिकेय का जन्म
कार्तिकेय का जन्म एक दिव्य और रहस्यमयी घटना के परिणामस्वरूप हुआ। पुराणों के अनुसार, देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष चरम पर था। ताड़कासुर नामक एक शक्तिशाली राक्षस ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। ताड़कासुर को केवल भगवान शिव के पुत्र द्वारा मारा जा सकता था, लेकिन भगवान शिव तपस्या में लीन थे और विवाह करने का उनका कोई इरादा नहीं था। देवताओं ने सोचा कि इस समस्या का समाधान कैसे निकाला जाए, इसलिए वे भगवान शिव को तपस्या से जगाने के लिए उपाय सोचने लगे।
इस कार्य के लिए, कामदेव को भेजा गया ताकि वे भगवान शिव को देवी पार्वती की ओर आकर्षित कर सकें। कामदेव ने अपने प्रेम बाण से भगवान शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास किया, जिससे शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया। लेकिन इस घटना के बाद शिव ने देवी पार्वती के प्रति आकर्षण महसूस किया और दोनों का विवाह संपन्न हुआ।
विवाह के बाद, भगवान शिव और देवी पार्वती ने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग कर कार्तिकेय को जन्म दिया। भगवान शिव के तेज से एक दिव्य अग्नि उत्पन्न हुई, जिसे सप्तऋषियों द्वारा गंगा में प्रवाहित किया गया। गंगा ने इस तेज को सरकंडे के झुरमुट में पहुंचाया, जहां से कार्तिकेय का जन्म हुआ।
कार्तिकेय का पालन-पोषण छह कृतिकाओं ने किया, इसलिए उन्हें ‘कार्तिकेय’ नाम से जाना जाता है। उनके छह मुख हैं, जिन्हें षण्मुख भी कहा जाता है, जो इस बात का प्रतीक हैं कि वे छह कृतिकाओं के समान ही हैं। उनके छह मुखों से वे एक साथ छह दिशाओं में युद्ध कर सकते हैं और सभी का पालन-पोषण कर सकते हैं।
बाल्यकाल और शिक्षा
कार्तिकेय का बाल्यकाल असाधारण शक्तियों से युक्त था। वे अल्पायु में ही शास्त्र और शस्त्र दोनों में निपुण हो गए थे। कार्तिकेय के पास ‘वेल’ नामक एक दिव्य भाला था, जिसे उन्हें उनकी माता पार्वती ने प्रदान किया था। यह भाला उन्हें हर प्रकार के युद्ध में विजय दिलाने में सक्षम था।
कार्तिकेय ने अपने शौर्य और ज्ञान का परिचय तब दिया जब उन्होंने ताड़कासुर को परास्त करने के लिए देवताओं की सेना का नेतृत्व किया। उन्हें ‘देवसेना’ का सेनापति नियुक्त किया गया, जिसका अर्थ है ‘देवताओं की सेना का अधिनायक’। उनके नेतृत्व में देवताओं ने ताड़कासुर को पराजित किया और स्वर्ग को पुनः प्राप्त किया। इस विजय के बाद, कार्तिकेय को ‘तारकजीत’ नाम से भी जाना जाने लगा, जिसका अर्थ है ‘ताड़कासुर को पराजित करने वाला’।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
भगवान कार्तिकेय की पूजा विशेष रूप से दक्षिण भारत में की जाती है। तमिलनाडु में, उन्हें ‘मुरुगन’ नाम से जाना जाता है और उनके सम्मान में कई प्रसिद्ध मंदिर बने हुए हैं, जैसे कि अरुपदई वीड़ु मंदिर। तमिल संस्कृति में, मुरुगन को ज्ञान, शक्ति और विजय का प्रतीक माना जाता है।
केरल में, उन्हें सुब्रह्मण्य के रूप में पूजा जाता है, और सुब्रह्मण्य स्वामी मंदिर, जो कि दक्षिण भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है, भगवान कार्तिकेय को समर्पित है। कर्नाटक में, कुक्के सुब्रह्मण्य मंदिर भगवान कार्तिकेय की उपासना का प्रमुख केंद्र है।
उनके प्रतीक और प्रतिमा
भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा में वे एक युवा, दिव्य योद्धा के रूप में दिखाए जाते हैं। उनके छह मुख और बारह भुजाएँ होती हैं, जिनमें वे विभिन्न प्रकार के शस्त्र धारण किए होते हैं। उनके वाहन, मयूर, को वे हमेशा अपने साथ रखते हैं, जो अहंकार और वासना पर विजय का प्रतीक है।
उनके प्रमुख प्रतीक ‘वेल’ को विशेष रूप से महत्व दिया जाता है। यह भाला उनकी शक्ति, साहस और युद्ध में विजय का प्रतीक है। दक्षिण भारत के कई धार्मिक अनुष्ठानों में वेल का उपयोग किया जाता है।
लोक कथाएँ और मान्यताएँ
भगवान कार्तिकेय से संबंधित कई लोक कथाएँ और मान्यताएँ भी प्रचलित हैं। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, एक बार भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों, गणेश और कार्तिकेय, से कहा कि वे पृथ्वी की परिक्रमा करें और जो पहले लौटेगा, उसे विजेता घोषित किया जाएगा। कार्तिकेय ने तुरंत अपने मयूर पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए उड़ान भरी, जबकि गणेश ने अपने माता-पिता, शिव और पार्वती, के चारों ओर परिक्रमा की। गणेश ने कहा कि उनके माता-पिता ही उनके लिए पूरी पृथ्वी के समान हैं, और इस प्रकार उन्हें विजेता घोषित किया गया।
कार्तिकेय को जब यह पता चला, तो उन्होंने नाराज होकर पर्वतों में जाकर तपस्या करने का निश्चय किया। कहा जाता है कि वे दक्षिण भारत के कई पर्वतीय स्थलों पर निवास करते थे, और उनके मंदिर आज भी इन स्थानों पर स्थित हैं।
निष्कर्ष
भगवान कार्तिकेय का जन्म और जीवन न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे शक्ति, साहस, ज्ञान और भक्ति के प्रतीक माने जाते हैं। उनके जीवन की कथाएँ हमें कर्तव्यनिष्ठा, नेतृत्व, और धर्म के प्रति अटूट निष्ठा की प्रेरणा देती हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी पूजा और मान्यता से यह स्पष्ट होता है कि वे भारतीय संस्कृति और धर्म के एक महत्वपूर्ण अंग हैं।